शायद से सच हो। लेकिन चूंकि मामला अदालत में है और जांच भी चल रही है इस वजह से इस पर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं है। लेकिन सीबीआई ने जो थ्योरी सामने रखी है उसपर इतनी आसाने से यकीन नहीं हो रहा। और ये लेख भी सिर्फ सीबीआई की थ्योरी के सिलसिले में है। आरुषि हत्याकांड का है और अब जब राजेश तलवार को क्लिन चिट मिलने के बाद सीबीआई ने राजकुमार, कृष्णा, और विजय मंडल को इसका मुख्य आरोपी बताया है। बेशक वो वैज्ञानिक जांच कि रिपोर्ट के आधार पर ऐसा कह रही है। लेकिन असल फांस यहीं है। सवाल जो मन में उठ रहे हैं वो ये सिर्फ ये है कि क्या यही तीनों क़ातिल हैं। अगर हां, तो क्या ये तीनों नौकर इतने दिन से इसी बात का इंतज़ार कर रहे थे कि पुलिस या सीबीआई आए और वो हमें उठा कर ले जाए। और हम तीनों हत्यारों को सज़ा मिल जाए। आखिर ऐसी क्या वजह थी जो ये तीनों हत्या करने के बाद बेखौफ नोएडा में ही जमे रहे। न तो नोएडा में इनका घर था, और नही कोई ऐसी लाखों के पघार वाली कोई नौकरी जिसके छूटने का गम होता। क्या ये तीनों इतने पावरफुल थे कि इन्होंने ये सोच रखा था कि पुलिस और सीबीआई इनका कुछ नहीं बिगाड़ेगी। क्या इनके मन में एक बार भी ये ख्याल नहीं आया होगा कि हत्या के बाद भाग चला जाए। वो भी तब जब शुरुआती एक महीने से अधिक समय में पुलिस और सीबीआई का इनकी ओर ध्यान तक नहीं गया। बात आसानी से समझ में नहीं आर रही। जिस तरह से इस मामले में जांच आगे बढ़ी और एक के बाद एक बातें सामने आ रही हैं, इन सुलगते सवालों का जवाब कभी मिल पाएगा?
Sunday, July 13, 2008
Thursday, July 3, 2008
सुपर 30 टूट गया..?
सुपर 30 टूट गया..?। लेकिन क्या टूटा। अभयानंद से आनंद टूटे या आनंद से अभयानंद? या फिर उन ग़रीब और बेहसहारा लोगों का इक सुंदर सा सपना जो जिनकी टाट के पैबंद सी जिंदगी में सुपर 30 का एक जगमगाती रौशनी भरती थी? ये मेरा सौभाग्य और संयोग दोनों है कि इस पवित्र मिशन के दोनों ही संचालकों को मैं जानता हूं। दोनों ही मेरे करीब रहे हैं। बेशक प्रोफेशनल स्तर पर ही सही। एक संयोग ये भी कि पिछले साल जब सुपर-30 के बंद होने की कगार पर पहुंचा था तो मैं पटना में ही था और पत्रकार की हैसियत से इसके बारे में जमकर लिखा था। कई प्रतिक्रियाएं आईं थी। पवन के कार्टून ने इसे और भी प्रभावशाली तरीके से उतारा था और इसके बाद अभयानंद जी और आनंद जी दोनों ने ही अपना फैसला वापस लिया था। लेकिन इसका कारण मैं कत्तई नहीं था, बल्कि दोनों ही संचालकों ने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए ऐसा करने का फैसला किया था। तब मैंने व्यक्तिगत रूप से दोनों ही लोगों का शुक्रिया किया था। मन को अच्छा लगा था कि सुपर 30 रोशनी दिन-दुनी रात चौगनी और बढ़ेगी। लेकिन इस बार फिर ये खबर मिली की सुपर 30 से अभयानंद जी अलग हो गए हैं। इस बारे में उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिली है। लेकिन ये तय है कि उनके मन ने कुछ सोच कर ही ये फैसला किया होगा। गणितज्ञ आनंद जो कि सुपर 30 के स्तंभ में से एक हें ने मुझे बताया है कि ये कारवां रुकेगा नहीं। ये काफी संतोष की बात है। ईश्वर उनेक आत्मविश्वास को और बल दे। लेकिन दुनिया के सामने जो छाप सुपर 30 ने छोड़ी है उसमें अभयानंद जी का नाम हमेशा जुड़ा रहा है और वो जुड़ा रहेगा। वो लोग जो सुपर 30 के बारे में नहीं जानते उन्हें बताना चाहूंगा कि (जैसा अभयानंद और आनंद ने मुझे बताया है) इसमे हर साल 30 गरीब पर होनहार बच्चों को लिया जाता है। फिर उन्हें निशुल्क (खर्च आनंद उठाते हैं) पढ़ाया-लिखाया जाता है। भोजन और रहने की व्यवस्था की जाती है। आनंद और उनकी टोली गणित और अन्य विषय पढ़ाते हैं जबकि अभयानंद जी पुलिस की व्यस्त दिनचर्या के बावजूद भौतिकी पढाते हैं। और फिर इनमें से हर साल 90 फीसदी से अधिक बच्चे आईआईटी में प्रवेश पाते है। उस आईआईटी में जिसका पूर मतलब भी उनके माता-पिता नहीं समझ पाते। और यही कारण है कि सुपर 30 का नाम देश-विदेश में अमर हो रहा है। पटना की एक तंग गली में चल रहा ये प्रयास आज दुनिया के कई कोनों में अपनी कीर्ति का बखान कर रहा है। अब जबकि अभयानंद जी ने इस संस्थान में योगदान नहीं देने का फैसला किया है, ऐसे में आनंद कि जिम्मेवारी और बढ़ गई है। ऐसे में देखना ये है कि 2009 में सुपर 30 का क्या नतीजा निकलता है। मैं तो यही कामना करूंगा कि सब कुछ शुभ हो।
Posted by राजीव किशोर at 4:01 AM 12 comments
Tuesday, July 1, 2008
बॉस हो तो ऐसा..
ऐसा बॉस सब को मिले। खूब डांटे। बिना मतलब के। उसकी डांट का न सिर हो, न पैर। बस हमेशा मूड खराब कर दे। उसके रहने से दफ्तर आने का मन न करे। वो जाए दो दिन होली और रात दिवाली की तरह बीते। सिंगल कॉलम की खबर छूटने पर लीड की शक्ल में डांटे। ऐसा बॉस बड़ा अच्छा होता है। आपके काम आ सकता है। कैरियर बना सकता है। हमारे एक मित्र को ऐसे ही सनकी बॉस से पाला पड़ा था। खेत खाए गदहा, मार खाए जोल्हा की तर्ज पर काम करने वाला नायाब बॉस। अपने प्रतिद्वंद्वी से थर-थर कांपने वाला बॉस। जो बस उसकी हर करतूत पर बस सज़ा देने को तैयार रहते थे। सरेआम बेइज्जत करने वाले शानदार बॉस। जिन्हें अपने पर यकीन कम और दूसरों भरोसा ज्यादा था। वो मित्र उन दिनों बड़ा परेशान रहता था। एक दिन मिला। कहा यार अब कुछ कर जाउंगा। नौकरी छोड़ दूंगा। पीआरओ बन जाउंगा। मैंने कहा- सब्र कर। बस दुआ कर कि ये बॉस बस यूं ही टिका रहे। तेरा भला हो जाएगा। उसने मुझे जी भर के गाली दी। कहा- तुझ जैसे दोस्त मिले तो दुश्मनों की दरकार ही क्या है। लेकिन मेरा ऐसा कहने के पीछे एक ख़ास मकसद था। वो ये कि वो मेहनती था और मेहनती आदमी एक जगह पर ज़्यादा दिनों तक रहे तो उसकी क़ीमत कम हो जाती है। मैं सोचता था कि वो उस सरहद को लांघ दे। बड़े बाज़ार में बड़ा बिकाऊ माल बने। लेकिन ये सब तबतक संभव नहीं था जबतक वो उस कुएं में कछुए की तरह पड़ रहता। उसे प्यार मिलता तो उसके भीतर काम बदलने की बेचैनी कभी नहीं आती। मेरा यकीन सही निकला। एक दिन बॉस से टूटकर वो नया काम ढूंढने निकला और उसकी बात बन गई। उसे वो मिला जो उसे उस बॉस से काफी दूर ले गया। आज अचानक वो मुझसे टकरा गया। काफी हैप्पी-हैप्पी दिखा। और उन दिनों को याद कर शायद उसे समझ आ गया हो कि बॉस हो तो ऐसा जो जिंदगी के नए मायने समझाए और बदलाव और तरक्की का कारण बने। लेकिन ऐसा बॉस खुद अपने लिए जरा खतरनाक हो सकता है। वो कैसे ये सोचना हमारा नहीं खुद उस बॉस का काम है। हम तो बस यही कहेंगे कि बॉस हो तो ऐसा..।
Posted by राजीव किशोर at 8:28 AM 4 comments