Monday, June 23, 2008

क्या आप डाउन मार्केट हैं?

कैब में घर जाना अगले दिन कुछ लिखने का सबब बन जाएगा, ये मैं नहीं जानता था। चैनल की उबाऊ शिफ़्ट पूरा करने के बादहर दिन की तरह कैब में हम सभी घर जाने के लिए बैठ चुके थे लेकिन आज कुछ खास था। हमारे छह लोगों के काफ़िले में एक नई सदस्या थींदेसी-घरेलू टाईप। बाकी तीन और लेडी थीं लेकिन वे अंग्रेजटीवी चैनल की नुमांदगी करती थीमै और एक मित्र हिंदी के और वो देसी लड़की शायद एक इंटरन थी जो उस दिन हमारी गाड़ी में घुसेड़ दी गई थी। गाड़ी आगे बढ़ी तो पता चला वो नई मेहमान डाबरी मोड़ के एक डाउन मार्केट इलाके में जाएंगी। बस यही बात अंग्रेज़ी की नुमाइंदों को हजम नहीं हुई। इलाके का नाम सुनते ही न सिर्फ नाक-भौं सिकुड़ गए, बल्कि ये फुसफुसाहट भी शुरू हो गई की कितनी डाउन मार्केट है। यकीन मानिए सिगरेट के छ्ल्ले उड़ाने के बाद कैब में बैइसके बाद तीनों मेमों ने एक ही झटके में डाउन मार्केट का ऐसी की तैसी कर दी। लेकिन गनीमत ये कि उन्होंने अपनी बात अंग्रेज़ी भाषा में छेड़ रखी थी। शायद उन्हें ये गुमान था कि उनकी जटिल अंग्रेज़ी को बाकी लोगों के लिए बाउंसर साबित होगी। लेकिन सबकुछ समझ में आने लगा। एक मेम ने अपने घर पर जाकर मिल्क और पल्प विद चेरी खाने का ज़िक्र छेड़ दिया। तो एक ने कहा सिंगल ओपन माइंड लाईफ का यही मज़ा है। अगर शादी हो जाती तो घर पर सास-ससुर और पति को खिलाने के बाद खुद खाना पड़ता। एक ने फरमाया कि वो भी अगर टिपिकल इंडियन (उनका इशारा शायद डाउन मार्केट के तरफ था) फैमिली मिली तो एकदम से लाइफ हेल हो जाती यार...। ये चर्चा अभी पूरे शबाब पर थी कि अचानक उनमें से एक के जिस्म पर एक कीड़ा बैठा और इसके बाद कोरस में आवाज़ गूंज गई”अरे बाप रे बाप..। ” मैं चौंका..। कारण भी था। अंग्रेजी की बखिया उधेड़ने वाली अचानक एकदम से देसी अरे बाप रे क्यों बोली..। फिर समझ में आया ये उन तीनों मेमों की असलियत थी जबकि अंग्रेजी में नकचढ़ी बोली बनाकर किसी को नीचा दिखाना एक आडंबर से अधिक कुछ नहीं।वैसे भी हकीकत से सामना होने पर इंसान की असलियत ही पहले बाहर आती है। अब ये राज़ खुल चुका था। अब मुस्कुराने की बारी हम सभी डाउन मार्केट लोगों की थी। सो हमने ये रस्म निभाई भी। बिल्कुल बिंदास और अल्हढ़ अंदाज़ में।
लेकिन ये वाकया कुछ सोंचने पर विवश भी कर गया। वो ये कि डाउन मार्केट के जिस फंडे से हम हरदिन रू-ब-रू होते रहते हैं उसी का अक्स अब हमारी जिंदगी और हमारी सोच पर भी दिखने लगा है। कल रात की कैब में भी दिखाई दिया। और ये भी समझ में आया कि डाउन मार्केट का बखान अलग-अगल लोग अपनी तरह से कर रहे हैं। लेकिन सब अपने मतलब, अपनी आत्मसंतुष्टि के लिएइससे अधिक कुछ भी नहीं। ख़बरों को तय करने वाले हमें ये बताते है कि डाउन मार्केट नहीं चलेगा। उनके हिसाब से दर्द बेचने से पहले ये तय करना ज़रूरी है कि दर्द किसको है। दर्द की चुभन से ज़्यादा महत्व इस बात की है कि चुभ किसको रहा है। ये सवाल नए ज़माने के हैं। शायद कमर्शिय वैल्यू के भी। लेकिन ख़तरा इस बात का है कि कहीं ये मीठा ज़हर हर दिन हर मोड़ पर हमारी ज़िंदगी में धीरे-धीरे न घुल जाए।

राजीव किशोर

1 comments:

Pragati Mehta said...

are bhai behtarin item likhe hain. Isi Dilli main aakar mujhe pata chala ki Downmarket kya chij hoti hai. baharhal aapne jo mahsus kiya wakai wo nai hitech global city main kala dhabba ke tarah hai.ummid karta hun ki aage bhi aap aisa hi behtarin item likhkar kathith broad minded logon ki bakhiya udhrte rahen. Dhanyabad


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