गजब का कॉन्फिडेंस। काफी दिन बाद टेलीवीजन पर एक विज्ञापन ने अपनी छाप छोड़ी है। काफी दिन का मतलब है '"का सुनील बाबू...नया घर...." वाले विज्ञापन के बाद। ये विज्ञापन एक निजी इंश्योरेंस कंपनी का है। जिसको हासिल करने के बाद एक बंदे में आत्मविश्वास इतना भर जाता है कि वो जाकर गब्बर सिंह और उसके पूरे चेले-चपाटों को ललकारता है। गुलथुल काया, हाफ स्वेटर, लाल मोफलर और मूंगफली खाता ये गबदू जवान जिस तरह सीना ठोक कर गब्बर को ललकारता है उसे देखकर लगता है कि भई कॉन्फिडेंस भी कोई चीज़ होती है। लेकिन इस विज्ञापन में आम आदमी अभी भी खुद को ढूंढता नज़र आता है। आप पूछेंगे कैसे? तो जनाब ऐसे कि पॉलिसी कराने के लिए पैसे चाहिए। कम से कम उतना की खाने-कमाने और गंवाने के बाद आप पॉलिसी की प्रीमियम भर सकें। अब सवाल और आम आदमी की परेशानी का सबब यही पैसा है। जनाब पैसा आए तो कहां से? केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार ने मंगाई की जो बंसी बजाई है उसकी तान हर महीन और ऊंची होती जा रही है। मंगाई दर भारत की आबादी की तरह रूकने का नाम ही नहीं ले रही। सात फीसदी से शुरू हुआ ये सफ़र अब दो अंको में जा पहुंचा है और ये आंकड़ा हर आम आदमी को चिढ़ा रहा है। और हमारे जैसे हर आम आदमी के कॉन्फिडेंस को एक ही झटके में म़टियामेट किए जा रहा है। ऐसे में जब ये गबदू भाई अपनी कॉंन्फिडेंस की नुमाइश कर रहा है तो देख कर मजा भी आता है कहीं न कहीं अफ़सोस भी। मजा ये कि क्या अंदाज़, क्या शोखी है। और अफ़सोस ये कि आखिर हर आदमी में ये गजब का कॉंन्फिडेंस कब आएगा?
राजीव किशोर
Monday, June 23, 2008
गजब का कॉन्फिडेंस
Posted by राजीव किशोर at 11:35 AM
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